भारतीय संविधान के अनुसार अध्यादेश लागू करने की शक्ति राष्ट्रपति या राजयपाल को अनुच्छेद 123 के अंतर्गत प्रदान की गयी है, जिसमे सनसद अगर कोई विधेयक पारित करती है तो राष्ट्रपति की अनुमति मिलते ही वह अध्यादेश बन जाती है, यानि अध्यादेश लागू करने की शक्ति राष्ट्रपति में ही निहित है।
आज दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री चिल्ला चिल्ला कर प्रेस कॉन्फ्रेंस में कह रहे है की केंद्र सरकार ने अध्यादेश लेकर देश की सर्वोच्च न्यायालय का अपमान कर दिया, लेकिन एक भूतपूर्व IRS अधिकारी को ये तो पता होना चाहिए की केंद्र सरकार का किसी भी मुद्दे पर अध्यादेश लाना उसका संवैधानिक अधिकार है, और उसको ऐसा करने से कोई नहीं रोक सकती है, खुद कोर्ट भी नहीं और संसद का दूसरा सदन भी नहीं।
और अध्यादेश कोई पहली बार नहीं किसी मुद्दे पर, जब संविधान बना था उस समय ये निर्धारित हुआ की सरकार जाति, धर्म, लिंग, मूल वंश या फिर जन्मस्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ कैसा भी भेदभाव नहीं करेगी, न नकारत्मक और न ही सकारात्मक, लेकिन सरकार ने आरक्षण लेकर 1951 में किया जिसे सुप्रीम कोर्टने रद्द कर दिया.
1. आरक्षण का मामला – ये शायद स्वतंत्र भारत का पहला मामला रहा होगा जब केंद्र और सुप्रीम कोर्ट का पहली बार टकराव हुआ होगा, संविधान लागू होते ही सरकार ने वोट बैंक पक्का करने के लिए आरक्षण की रेवड़िया बॉटनी शुरू कर दी थी जिसपर 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि उम्मीदवार की धर्म या जाति के आधार पर सरकार एडमिशन में सीटें आरक्षित नहीं रख सकती क्युकी संविधान के अनुसार सभी नागरिक सामान है और उनके बीच किसी भी तरह का भेदभाव असंवैधानिक है लेकिन सरकार ने क्या किया सन 1961 में संविधान में पहला संशोधन किया गया. इसके तहत, अनुच्छेद 15 में क्लॉज (4) जोड़ा गया. अनुच्छेद 15(4) ने सरकार को सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों के लिए सीटें आरक्षित करने का अधिकार दिया ये वास्तव में पहली बार सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मामला था लेकिन नेहरू जी के प्रभाव के आगे किसी की हिम्मत नहीं हुयी इसे सुप्रीम कोर्ट का अपमान बताने की.
2. इंदिरा गांधी का मामला तो पूरा देश जनता है जिसके कारण देश को आपातकाल भी झेलना पड़ा, मामला था 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव जीतीं. इसे इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को रायबरेली चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया और चुनाव रद्द करके फिर से चुनाव कराने का आदेश जारी किया, लेकिन इंदिरा सरकार ने क्या किया? इंदिरा सरकार ने संविधान में 39वां संशोधन किया और अनुच्छेद 392A जोड़ा. अनुच्छेद 392A कहता था कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा स्पीकर के चुनाव को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती. हालांकि, बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 39वें संशोधन को अवैध करार देते हुए रद्द कर दिया बस इसके बाद देश ने आपातकाल का सामना किया था.
3. शाह बानो का मामला वास्तव में एक धर्मनिरपेक्ष देश में बहुत ही शर्मनाक मामला है, जिसमे धार्मिक कानून देश के कानून से ऊपर है ये संसद ने सिद्द कर दिया और वो भी तब जब राजीव गाँधी जैसे व्यक्ति प्रधान मंत्री थे, मामला था इंदौर की रहने वाली शाह बानो को उनके पति मुहम्मद अली खान ने तीन तलाक दे दिया था. शाह बानो ने गुजारा भत्ता की मांग को लेकर केस दायर किया. 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के हक में फैसला दिया. कोर्ट ने साफ किया कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं गुजारा भत्ता मांग सकती हैं.लेकिन इससे वर्तमान सरकार को अपना वोटबैंक खिसकता नजर आया तो 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम वुमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डाइवोर्स) एक्ट 1986 पेश किया. नए कानून के तहत मुस्लिम महिलाएं धारा 125 के तहत गुजारे भत्ते का हक नहीं मांग सकती थीं. कानून में प्रावधान किया गया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं इद्दत की तीन महीने की अवधि पूरी होने तक ही गुजारा भत्ते की हकदार हैं. और फिर इस काले कानून को 2018 मोदी सरकार बदला।
4 – ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स एक्ट फरवरी 2021 में लोकसभा में ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स बिल पेश किया, लेकिन ये अटक गया. बाद में अप्रैल 2021 में सरकार अध्यादेश लेकर आई. अध्यादेश के तहत, कुछ अपीलेट बॉडीज को भंग करने और उनके कामकाज को मौजूदा ज्यूडिशियल बॉडीज को ट्रांसफर करना था. इसके अलावा, इसमें ट्रिब्यूनल के चेयरपर्सन और सदस्यों का कार्यकाल भी 4 साल फिक्स करने का प्रावधान था. साथ ही, चेयरपर्सन के लिए अधिकतम आयु सीमा 70 साल और सदस्यों के लिए 67 साल थी.2021 में सुप्रीम कोर्ट ने इस अध्यादेश को रद्द कर दिया. लेकिन अगले ही महीने संसद में ये कानून बन गया. बाद में इसे फिर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. फिलहाल, ये मामला सुप्रीम कोर्ट में ही लटका है, लेकिन तब तक ये वैसे ही काम कर रहा है जैसा संसद ने निर्धारित किया है .
5 – ये वास्तव में स्वतंत्र भारत मे एक काले कानून जैसा है, या यु कहे की रोलेट एक्ट का ही न्य नाम है, न वकील न दलील सीधा जलील, एससी-एसटी एक्ट मार्च 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि एससी-एसटी एट्रोसिटीज एक्ट 1989 के तहत सरकारी अफसरों को गिरफ्तार करने से पहले अनुमति लेनी होगी, साथ ही ऐसे मामलों में जांच किए बगैर एफआईआर भी दर्ज नहीं होगी. इसके बाद एससी-एसटी एक्ट में संशोधन कर धारा 18A जोड़ी गई. इसमें प्रावधान था कि एससी-एसटी एक्ट के तहत बगैर एफआईआर और बगैर किसी के अनुमति के भी गिरफ्तारी हो सकती है. इस संशोधन के जरिए ये भी प्रावधान किया गया कि ऐसे मामले में गिरफ्तार होने वाले को अग्रिम जमानत भी नहीं मिल सकती. 2018 में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ कई याचिकाएं दायर हुईं. 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने भी घुटने टेक दिए और फिर ये फैसला दिया और एससी-एसटी एक्ट में संशोधन की वैधता को बरकरार रखा.
6 – केजरीवाल की दिल्ली या उपराज्य पाल की दिल्ली का मामला, इसमें सुप्रीम कोर्ट के अनुसार चुनी हुयी सरकार जनता की ज्यादा हितेषी होती है ये मान कर निर्णय दिया गया था लेकिन केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश के तहत, अधिकारियों की ट्रांसफर और पोस्टिंग से जुड़ा आखिरी फैसला लेने का हक फिर से उपराज्यपाल को दे दिया गया है. जिसके अंतर्गत, दिल्ली में सेवा दे रहे कैडर के ग्रुप-A अफसरों के ट्रांसफर-पोस्टिंग और उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए एक अथॉरिटी का गठन किया जाएगा. दानिक्स यानी दिल्ली, अंडमान-निकोबार, लक्षद्वीप, दमन एंड दीव, दादरा एंड नागर हवेली सिविल सर्विसेस.- इस अथॉरिटी में तीन सदस्य- दिल्ली के मुख्यमंत्री, दिल्ली के मुख्य सचिव और दिल्ली के गृह प्रधान सचिव होंगे. इस अथॉरिटी के अध्यक्ष दिल्ली के मुख्यमंत्री ही होंगे. और इस अथॉरिटी को सभी ग्रुप-A और दानिक्स के अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग और नियुक्ति से जुड़े फैसले लेने का अधिकार होगा, लेकिन इस पर आखिरी मुहर उपराज्यपाल की होगी. अगर किसी भी कारण से उपराज्यपाल अथॉरिटी के फैसले से सहमत नहीं होते हैं तो वो इसे बदलाव के लिए लौटा भी सकते हैं. फिर भी मतभेद रहता है तो आखिरी फैसला उपराज्यपाल का ही होगा.
“दिल्ली में अफसरों की ट्रांसफर और पोस्टिंग का अधिकार दिल्ली सरकार मिलने के बाद केंद्र सरकार अब एक नया अध्यादेश लेकर आ गई है. ये अध्यादेश फिर से उपराज्यपाल को अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग से जुड़े फैसले लेने का अधिकार देता है. इससे पहले भी अध्यादेश या संसद में कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पलटने की कोशिश हो चुकी है.
का अध्यादेश लाना कोई नयी बात नहीं है और न ही द्वेषपूर्ण कार्य के रूप में देखना चाहिए क्युकी आरक्षण और sc st एक्ट में भी ये लायी है जो सीधे सीधे नागरिको के हित में नहीं है