जब भारत देश स्वतंत्र हुआ था उसके बहुत पहले से ही वामपंथी इतिहासकारो का इतिहास लेखन या यु कहे की इतिहास को अपने मन मुताबिक बदलने का हुनर आ चूका था, और जैसे ही देश स्वतंत्र हुआ तो मौलाना साहब की देखरेख में इतिहास स जितनी छेड़छाड़ संभव थी की गयी और वो भी प्रगतिशीलता के नाम पर।
हमने महाराणा प्रताप के चेतक की सिर्फ एक कविता सुनी है और इतिहास से उसे ऐसे ही गायब कर दिया जैसे था ही नहीं, ऐसे ही बहुत से बफादार जानवर हुए है जिन्होंने अपने पालनहार के लिए कभी तो जान की बाजी लगा दी और कभी दुश्मन की जान लेली।
आज हम बात करेंगे की ऐबक कैसे मरा ? ज्यादातर लोगो को “इतिहास” में जो हमे बताया गया है वही जानते है की पोलो खेलते हुए मरा। इतिहास के बारे मे कहा जाता है। कि तथ्य वही कहते है जो इतिहासकार उन तथ्यो से बुलवाता है।
ऐसे ही एक तथ्य है कुतुबुद्दीन ऐबक की दर्दनाक और वीभत्स मौत जिसके बारे मे सेखूलर इतिहासकार सिर्फ एक लाइन कहकर इतिश्री कर लेतेहै।कि मौत घोड़े से गिरकर हुई थी।
आज मै थोडा गहराई से आपको उसकी मौत के तथ्यो का संकलन करने का प्रयास करताहू।
इसकी सम्भवतः जैन विष्णु मंदिर तोड़कर कुतुबमीनार बनवाने के बाद 1206 मे हुई थी। कैसे हुई अब इसे जानिए।
कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में जम कर कहर बरपाया, और
उदयपुर के ‘राजकुंवर कर्णसिंह’ को किसी तरह घोड़ें समेत बंदी बनाकर लाहौर ले गया। कर्ण सिंह का ‘शुभ्रक’ नामक वहदत स्वामिभक्त घोड़ा था, यह कुतबदीन कि बदकिस्मती थी जो उसको वह पसंद आ गया।
एक दिन कैद से भागने के प्रयास में कुँवर सा को सजा-ए-मौत सुनाई गई.. और सजा देने के लिए ‘जन्नत बाग’ में लाया गया। यह तय हुआ कि
राजकुंवर कर्ण सिंह का सिर काटकर उससे [ सिर से] उनका मनपसंद खेल ‘पोलो’ (उस समय उस खेल का नाम और खेलने का तरीका कुछ और ही था) खेला जाएगा… मूर्ख कुतुबुद्दीन ख़ुद कुँवर सा के ही घोड़े ‘शुभ्रक’ पर सवार होकर बडी़ शान से अपनी खिलाड़ी टोली के साथ ‘जन्नत बाग’ में आया।
‘शुभ्रक’ ने जैसे ही कैदी अवस्था में राजकुंवर को देखा, वह एक पल मे सारी स्थिति समझ गया। काश किसीने उस समय उसकी खामोश बेजुबान आंखों से आंसू टपकते देख लिये होते। ऐसे आंसू भयानक तूफान लाते हैं।
जैसे ही सिर कलम करने के लिए कुँवर सा की जंजीरों को खोला गया,
तो ऐकाऐक’शुभ्रक’ सजग हो गया। और उसने बिजली कि तेजी से उछलकर कुतुबुद्दीन को घोड़े से गिरा दिया और उसकी छाती पर अपने मजबूत पैरों से ईतने घातक वार किए, कि मलेक्ष कुतुबुद्दीन के प्राण पखेरू उड़ गए!
इस्लामिक सैनिक बुत कि तरह अचंभित होकर देखते रह गए.. कि आखिर ये हुवा कया ???
वे कुछ समझते ईससे पहले मौके का फायदा उठाकर कुंवर सा पथर के बुत बने सैनिकों से छूटे और चीते की तरह छलांग लगा’शुभ्रक’ पर सवार हो गए। ‘शुभ्रक’ ने भी हवा से बाजी लगा दी.. कोई यकीन नहीं कर सकता पर वो लाहौर से उदयपुर बिना रुके दौडा और उदयपुर में महल के सामने आकर ही रुका! राजकुंवर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खडा था..ऐक दर्द भरी हिचकी के साथ उसने आखरी सांस ली,अब उसमें प्राण नहीं बचे थे।
सिर पर हाथ रखते ही ‘शुभ्रक’ का निष्प्राण शरीर लुढक गया..
भारत के शर्मनाक सेखूलर इतिहास में यह तथ्य कहीं नहीं पढ़ाया जाता। क्योंकि वामपंथी और सेक्युलर लेखक ऐसी दुर्गति वाली मौत को बताने से हिचकिचाते हैं। आज के युग में इन्हें पक्के सेक्युलर कहते है, जिन्होंने अपने गौरव पूर्ण इतिहास को बेइज्जती के साथ लिख कर देश की जनता में परोसा है।
जबकि फारसी की कई प्राचीन पुस्तकों में कुतुबुद्दीन ऐबक की मौत इसी तरह लिखी बताई गई है। परन्तु हमारे देश के जेहादी सेक्युलर और बामपंथीयो ने ये वीरता पूर्ण तत्व गोल कर दिये है ।
नमन स्वामीभक्त ‘शुभ्रक’ को..हमारे देश मे पालतू जानवरो को भी पूज्य माना जाता है। गाथा पौराणिक धर्मग्रंथो से शुरू होती है। हाथी,घोड़े,गाय सबका अपना अपना योगदान है। शुभ्रक की ही भाती महाराणा प्रताप घोड़े कंथक की अपनी यशोगान गाथा है जिसे समाज को जानना चाहिए।
पहले बहरे देशवासी लोगो को विदेशी इतिहासकारो ने अपने देश की वीरगाथाएं सुनने नहीं दी और बाद में उन सभी को मनगणंत और कपोलकल्पित बता कर, विज्ञानं और प्रगति की घुट्टी पिला कर नशे की हालत में पंहुचा दिया।