रामायण एवं श्री राम चरित मानस, ये दोनों महान ग्रंथ भगवान श्री राम एक आदर्श जीवन के बारे में बताते है और यही से हमे एक बहुत बड़ी सीख मिलती है की अगर हम बलवान तो हमे अपने बल का प्रयोग कहाँ करना चाहिए, जैसे हनुमान जी ने अपने बल का प्रदर्शन माता सीता जी का भय दूर करने के लिए किया, जबकि सामान्यतया लोग अपने बल का प्रदर्शन लोगो में भय उत्पन्न करने के लिए करते है। NEWS – श्रीराम वन गमन पथ सहित 23 तीर्थ स्थानों का होगा विकास
भगवान राम का वन गमन की कहानी अद्भुद है, भगवान राम, माता जानकी और लक्ष्मण जी जब अयोध्या जो की वर्तमान में उत्तर प्रदेश में है, से निकले तो सबसे पहले तमसा तट पर पहुंचे, फिर प्रयाग इसके बाद चित्रकूट, फिर शरभंग मुनि के आश्रम होते हुए पंचवटी पहुंचे जो वर्तमान के महाराष्ट्र के नाशिक जिले में है, इस स्थान पर ही शूर्पणखा के नाक (नाशिका) कान काटने के कारन इस स्थान का नाम नाशिक पड़ा और यही पर सीता माता का हरण हुआ था।
माता सीता के हरण के बाद, प्रभु राम और लक्ष्मण जी ने उनको खोजना शुरू किया दण्डक वन में शबरी से मिलते हुए, किष्किंधा पर्वत पर सुग्रीब से मित्रत्रा की, वर्तमान में किष्किंधा पर्वत और पाम्पा सरोवर कर्णाटक में है।
इसके बाद जब हनुमान जी ने लंका में जाकर माता सीता का पता लगा लिया तो संमस्त वानर सेना के साथ प्रभु ने समुद्र तट की तरफ प्रस्थान किया और वह पर रामेश्वरम के स्थापना की, रामेश्वरम वर्तमान में तमिलनाडु में है।
वनवास के समय जब प्रभु श्री राम अयोध्या से निकले तब जो मार्ग उन्होंने लिए, जैसा रामायण और श्री राम चरित में वर्णित है उसी के आधार पर या मानचित्र बनाया गया है
भगवान श्री राम वन गमन पथ मैप
वनवास के समय जब प्रभु श्री राम अयोध्या से निकले तब जो मार्ग उन्होंने लिए, जैसा रामायण और श्री राम चरित में वर्णित है उसी के आधार पर या मानचित्र बनाया गया है

भगवान राम के वनगमन का यात्रा वृतांत्र
१- श्रृंगवेरपुर पहुंचना, जो वर्तमान में लखनऊ रोड पर प्रयागराज (उत्तर प्रदेश के जिले) से 45 कि.मी कि दूरी पर स्थित है, यही राज से मिले थे।
२- तमसा नदी के तट पर जो एक रात्रि विश्राम किया था, जो वर्तमान में मध्य प्रदेश में है (प्रथम वास तमसा भयो दूसर सुरसरि तीर’)
३ प्रयागराज पहुंचना, यही पर भरद्वाज मुनि से वार्तालाप हुयी थी, वर्तमान में यह उत्तर प्रदेश में ही है।
४- महर्षि वाल्मीकि जी के आश्रम में पहुंचे यह भी वर्तमान में मध्य प्रदेश में ही है, यहाँ पर प्रभु श्री राम ने ऋषिवर को इस प्रकार सम्मानित किया “तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा, विस्व बदर जिमि तुमरे हाथा।’
५- इसके बाद भगवान राम चित्रकूट जो कि सतना जिले में है पहुंचे, वर्तमान समय में यह भी मध्य प्रदेश में है।
६- चित्रकूट में ही महाराज भरत जी सभी प्रजाजनों और जनक जी के साथ भगवान राम से मिले थे।
७- चित्रकूट के बाद, भगवान राम, जानकी जी और लक्ष्मण जी पंचवटी में आये थे, यही पर शूर्पणखा के नाक कान काटे थे, इसीलिए इस स्थान का नाम नासिक भी पड गया।
८- पंचवटी में पास दंडकारण्य में ही भगवान ने खर दूषण का वध किया और यही पर माता सीता जी का रावण द्वारा हरण हुआ था।
९- माता जानकी जी के खोज में भगवान राम और लक्ष्मण शबरी जी पहुंचे जो वर्तमान में छत्तीसगढ़ में है।
१० – किष्किंधा में भगवान सुग्रीव से मिले जो वर्तमान में कर्नाटक राज्य में तुंगभद्रा नदी के किनारे वाले हम्पी शहर के आस-पास के इलाके को माना गया है
११ किष्किंधा के पास ही पम्पापुर में भगवान राम रुके और यही पर हनुमान जी लंका से माता सीता जी का पता लगा कर आये।
१२- माता जानकी जी का पता लगने के बाद, समस्त सेना भगवान ने समुद्र की तरफ प्रस्थान किया और समुद्रतट पर रामेश्वरम (रामनाथपुरम) की स्थापना की, यह वर्तमान में तमिलनाडु में है।
१३ – यही से पथ्थर पुल बना, विजय की, वर्तमान में इस पुल के अवशेष है और इसे आदम का पुल कहा जाता है।
रामायण के महत्वपूर्ण तथ्य
सम्पूर्ण लंका स्वर्ण की बानी थी, जिसे जब हनुमान जी ने जलाया तो स्वर्ण पिघल गया, क्युकी स्वर्ण जलता नहीं है, फिर रावण के नाना मलयवन्त ने फिर से उसी स्वर्ण का इस्तेमाल करके बना दिया था।
श्री रामचरितमानस हमें बताती है की आप किसी कार्य के जा रहे हो तो रश्ते में अगर किसी साधु से भेंट हो जाए तो आपके कार्य में कभी बढ़ा नहीं आएगी।
जब हनुमान जी लंका जाने लगे तो देवताओं को लगा की कही ऐसा तो नहीं वह जाकर हनुमान जी पकड़ लिए जाए, इसलिए उनकी उनकी बुध्दि का परिक्षण के लिए उन्होंने सुरसा जी को भेजा जो की नागों की माता है
सुरसा जी ने सिर्फ यही परीक्षण किया की क्या हनुमान जी को पता है की कब शरीर को विशाल करना है और कब बहुत छोटा करता है, और हनुमान जी इस परीक्षा में सफल हुए, तब माता सुरसा जी ने भी उनको सफल होने का आशीर्वाद दिया।
स्वयंप्रभा जी भगवान राम के बद्रीनाथ धाम में विराजित है
जामवंत जी भगवान ब्रह्मा जी के मानस पुत्र है, सतयुग में भगवान विष्णु के विश्वरूप की तीन परिक्रमा कर ली थी।
जब ऋषि ने योगबल से देखा तो जान गए ये बाली ने किया है, इसीलिए उन्होंने बाली को पर्वत पर नाही आने का शर्प दे दिया था जो सुग्रीव के लिए वरदान बन गया
दुंदुभि के वध के बाद बालि ने उसके शरीर को फेंका तो उसके रक्त की कुछ बुँदे ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित मातंग ऋषि के आश्रम में गिर गयी
बालि देवराज इंद्र के मानस पुत्र थे, और उनकी पत्नी तारा स्वर्ग की अप्सरा थी जो वानर वैधराज सुषेण की पुत्री थी
शबरी जो की भील जनजाति की थी, महर्षि मतंग की शिष्या थी, यह इस बात का भी प्रमाण है की आर्यवृत्त में स्त्री शिक्षा और और सभी वर्गों को शिक्षा का अधिकार था, बस उसके अन्दर शिक्षा के प्रति लग्न होनी चाहिए।
रामायण के अनुसार कुम्भकर्ण महाराज प्रताप भानु का छोटा भाई अरिमर्दन था, जो ब्राह्मणो के श्राप के कारण राक्षस बने।
भगवान राम शबरी माता से भारत के राज्य छत्तीसगढ़ के जिले जंझगिर चंपा में स्थित खरौद नगर में है, वर्तमान में इस स्थान पर शौरि मंडप नामक शबरी माता का ही मंदिर है
कवन्ध वास्तव एक सुन्दर गन्धर्व था जो मनोविनोद के लिए राक्षसों जैसी भीषण आकृति बनाकर ऋषियों को डराया करता था तब ऋषि स्थूलशिरा ने कबंध को श्राप दिया था की यही शरीर तेरा सदा के लिए हो जाय।
जब यह रावण और खर दूषण के साथ आयी तो इनकी राक्षसी परिवृति जाएगी, और विकराल रूप में नाखून सूप के समान बड़े होने के कारन दूषण ने इसका नाम शूर्पणखा रखा था।
रावण को नलकूबर की प्रेयसी ने श्राप दिया था की अगर रावण ने किसी स्त्री को उसकी इक्षा के विरुद्ध छूने का प्रयास किया तो रावण के सर के टुकड़े टुकड़े हो जायेगे।
खरदूषण के वध पश्चात भगवान राम ने माता सीता जी को अग्नि में प्रवेश करने को कहा था और अपनी परछाई को सीता जी के रूप में यहाँ रहने को कहा था, जो लंका विजय के पश्चात अग्नि परीक्षा के समय पुनः उस परछाई में आ गयी थी ।
सुपर्णखा, ऋषि विश्रवा और उनकी दूसरी पत्नी कैकसी की सबसे छोटी संतान थी। सुपर्णखा को जन्म के समय मीनाक्षी “दीक्षा” का नाम दिया गया था और बाद में चन्द्रनखा नाम पड़ा।
रामायण के अनुसार, भगवान राम और निषाद राज गुह, दोनों ही वशिष्ठ जी के आश्र्म में एकसाथ अध्ययन करते थे, इस प्रकार रामायण से हमे पता चलता है की जाती के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था।
महारानी कैकेयी के महाराज दशरथ ने तीन वरदान मांगने के लिए देवासुर संग्राम में महाराजा दशरथ के प्राण रक्षा के लिए रथ की कील की जगह अपनी ऊँगली से रथ का पहिया रोकने के कारण कहा था।