१८५७ के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी

भारत के 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की बात शुरू होती है मगंल पांडे, फिर ये संग्राम मेरठ से निकल कर कानपूर, लखनऊ, बिहार, झांसी और ग्वालियर होता हुआ दिल्ली तक पहुंच गया, इस क्रांति में बहुत से क्रांतिकारिओं का योगदान रहा है, उनमे से कुछ की जानकारी देने का प्रयास किया जा रहा है।

मंगल पांडे

मंगल पाण्डेय का जन्म 19 जुलाई १८२७ को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगवा गांव में हुआ था, वह एक समर्पित सर्यूपारी ब्राह्मण थे जो की नियमित पूजापाठ किया करते थे, वह बैरकपुर छावनी में बंगाल नेटिव इन्फैण्ट्री की ३४वीं रेजीमेण्ट में सिपाही थे, जब उनको पता चला की जो एनफील्ड बंदूक के लिए कारतूस दिया जा रहा है उसमे गाये और सूअर की छवि लगी होती है, एक समर्पित ब्राह्मण होने के कारन गाय की चर्वी और सूअर की को मुँह लगाना उनके लिए निकृश्ट काम था इसलिए उनहोने इसका पहले विनम्र विरोध किया इसके बाद जब उनकी बात नहीं सुनी गयी तो सबसे पहले उन्होंने अपने रेजीमेण्ट के अफ़सर लेफ़्टीनेण्ट बाग पर हमला कर के उसे घायल कर दिया। जनरल जान हेएरसेये ने जमादार ईश्वरी प्रसाद ने मंगल पांडेय को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया पर ईश्वरी प्रसाद ने मना कर दिया। सिवाय एक सिपाही शेख पलटु को छोड़ कर सारी रेजीमेण्ट ने मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार करने से मना कर दिया, ६ अप्रैल १८५७ को मंगल पाण्डेय का कोर्ट मार्शल कर दिया गया और ८ अप्रैल को फ़ांसी दे दी गयी, जिससे उनके साथिओ में असंतोष पैदा हुआ और एक बड़ा विद्रोह में बदल गया।
बिलियम केय के हिस्ट्री आॅफ स्पयवार 1857 से प्राप्त वर्णन के अनुसार कलकत्ता स्थित तत्कालीन इन्सपेक्टर जनरल आॅफिसर के रिकार्डों से यह बात सिद्ध होती है कि 16 अगस्त 1856 को कलकत्ता के ही गंगाधर बनर्जी एण्ड कम्पनी को 12 पैसा प्रति सेर (750 ग्राम) की दर से पशुओं की चर्बी आपूर्ति का ठेका दिया गया था। इस बात की जानकारी होेने पर हिन्दू और मुसलमान दोनों सैनिकों ने विरोध भी किया और चर्बी के स्थान पर मोम या तेल का उपयोग करने की सलाह भी दिया था। किन्तु किसी ध्यान नहीं दिया था, जबकि तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग ने भी 7 फरवरी 1857 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के संचालकों से बात किया। यह बताया भी कि इससे कम्पनी के सैनिक भड़क जाएंगे। लेकिन उनकी बात पर भी कम्पनी ने ध्यान नहीं दिया। इस घटना के बाद मंगल पाण्डेय के सीने में अपने धर्म को बचाने और अंग्रेजों से इस नापाक षडयंत्र का बदला लेने की आग धधकने लगी .

कुंवर सिंह

कुंवर सिंह का जन्म 1777 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था, मंगल पांडे की बहादुरी ने सारे देश में विप्लव मचा दिया। और उनको फांसी दिए जाने के बाद बिहार की दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने बगावत कर दी। मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी। ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया। २७ अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा कर लिया। अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा।
इन्होंने 23 अप्रैल 1858 में, जगदीशपुर के पास अंतिम लड़ाई लड़ी। ईस्ट इंडिया कंपनी के भाड़े के सैनिकों को इन्होंने पूरी तरह खदेड़ दिया। उस दिन बुरी तरह घायल होने पर भी इस रणबाँकुरे ने जगदीशपुर किले से गोरे पिस्सुओं का “यूनियन जैक” नाम का झंडा उतार कर ही दम लिया। वहाँ से अपने किले में लौटने के बाद 26 अप्रैल 1858 को इन्होंने वीरगति पाई।

नाना साहेब

नाना साहब जिनका वास्तविक नाम धूंधूपंत था ने सन् 1824 में उत्तर प्रदेश के जिले कानपूर जिले के बिठूर तहसील के वेणुग्राम निवासी माधवनारायण राव के घर जन्म लिया था। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे।
जब 28 जनवरी सन् 1851 को पेशवा का स्वर्गवास हो गया। नानाराव ने बड़ी शान के साथ पेशवा का अंतिम संस्कार किया। दिवंगत पेशवा के उत्तराधिकार का प्रश्न उठा। कंपनी के शासन ने बिठूर स्थित कमिश्नर को यह आदेश दिया कि वह नानाराव को यह सूचना दे कि शासन ने उन्हें केवल पेशवाई धन संपत्ति का ही उत्तराधिकारी माना है न कि पेशवा की उपाधि का या उससे संलग्न राजनैतिक व व्यक्तिगत सुविधाओं का।
नानाराव धूंधूपंत को अंग्रेज सरकार के रुख से बड़ा कष्ट हुआ। वे चुप बैठनेवाले न थे। उन्होंने इसी समय तीर्थयात्रा प्रारंभ की। नाना साहब का इस उमर में तीर्थयात्रा पर निकलना कुछ रहस्यात्मक सा जान पड़ता है। सन् 1857 में वह काल्पी, दिल्ली तथा लखनऊ गए। काल्पी में आपने बिहार के प्रसिद्ध कुँवर सिंह से भेंट की और भावी क्रांति की कल्पना की। जब मेरठ में क्रांति का श्रीगणेश हुआ तो नाना साहब ने बड़ी वीरता और दक्षता से क्रांति की सेनाओं का कभी गुप्त रूप से और कभी प्रकट रूप से नेतृत्व किया। क्रांति प्रारंभ होते ही उनके अनुयायियों ने अंग्रेजी खजाने से साढ़े आठ लाख रुपया और कुछ युद्धसामग्री प्राप्त की। कानपुर के अंग्रेज एक गढ़ में कैद हो गए और क्रांतिकारियों ने वहाँ पर भारतीय ध्वजा फहराई। सभी क्रांतिकारी दिल्ली जाने को कानपुर में एकत्र हुए। नाना साहब ने उनका नेतृत्व किया और दिल्ली जाने से उन्हें रोक लिया क्योंकि वहाँ जाकर वे और खतरा ही मोल लेते।
1 जुलाई 1857 को जब कानपुर से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पूर्ण् स्वतंत्रता की घोषणा की तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की। नाना साहब का अदम्य साहस कभी भी कम नहीं हुआ और उन्होंने क्रांतिकारी सेनाओं का बराबर नेतृत्व किया।

रानी लक्ष्मी बाई

लक्ष्मीबाई का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के भदैनी नामक नगर में 19 नवम्बर 1835 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था परन्तु प्यार से उसे मनु कहा जाता था।

सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।

ब्रिटिश अधिकारियों ने राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काटने का फरमान जारी कर दिया। इसके परिणामस्वरूप रानी को झाँसी का क़िला छोड़ कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होनें हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया।

झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी, झलकारी बाई जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी को उसने अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया, 1857 के सितम्बर तथा अक्टूबर के महीनों में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया, 1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया, दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर क़बज़ा कर लिया, रानी झाँसी से कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिली, 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त की

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